अजित पवार-एकनाथ शिंदे की तरह राज ठाकरे भी पार्टी पर दावा ठोक देते तो क्‍या आज शिवसेना उनकी होती? Read it later

NCP Crisis: बीते कुछ महीनों में एकनाथ शिंदे और उद्धधव ठाकरे और के बीच पार्टी पर दावा ठोकने को लेकर खूब रस्‍साकशी चली। मामला चुनाव आयाेेग से लेकर सर्वोच्‍च न्‍यायालय तक पहुंचा, आखिरकार पार्टी का असली मालिकाना हक शिंदे को मिला। यह फैसला उद्धव ठाकरे के लिए कुर्सी छिनने के बाद कमर तोड़ने जैसा था। क्‍यों मुख्‍यमंत्री का पद वे गवां चुके थे इसके बाद पार्टी के वजूद को ही उनसे झपट लिया गया।

अब करीब एक साल बाद महाराष्‍ट्र की राजनीति में फि‍र वही वर्चस्‍व की लड़ाई पर रस्‍साकशी चल रही है, बस पार्टी और किरदार अलग हैं। एनसीपी के अजित पवार अपने 8 विधायकों के साथ बीजेपी-शिवसेना (shiv sena) में शामिल हो गए हैं। और तो और एकनाथ और फडणवीस के साये में अब वे भी एनसीपी (NCP Crisis) में दावा ठोक रहे हैं।
एनसीपी की घरेलू जंग के बीच राज ठाकरे ने भी ट्वीट कर इस तरह की दल बदल राजनीति को महाराष्‍ट्र के लिए भयावह बताते हुए कहा कि शरद पवार (NCP Crisis) वही भुगत रहे हैं जो अपने वक्‍त में खुद उन्‍होंने ही किया था।

समय वापस लौट कर आया है उनका किया आज वे भुगत रहे हैं। खैर महाराष्‍ट्र की एनसीपी में चाचा-भतीजे की जंग में अब शिव सेना के चाचा-भतीजे (बाल ठाकरे और राज ठाकरे) की तनाव को ताजा कर दिया है। महाराष्‍ट्र की राजनीति में अंदरखाने यह चर्चा भी जोरों पर है कि जब शिवसेना में राज ठाकरे को पार्टी गतिविधयों से दरकिनार क‍िया जा रहा था तब क्‍या राज ठाकरे को भी वही करना चाहिए था जो एकनाथ शिंदे और अजित पवार ने किया।

महाराष्‍ट्र की राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले विश्‍लेषकों का मानना है कि राज ठाकरे उस समय चाहते तो ऐसा कर सकते थे, क्‍योंकि उस वक्‍त शिवसेना में बाल ठाकरे के बाद राज ठाकरे ही अपने चाचा की तरह फायरब्रांड नेता थे और शिवसेना मेंं उनकी पकड़ काफी मजबूत थी। हालांकि कुछ विश्‍लेषकों का मानना है कि राज ठाकरे की भले ही पार्टी पर पकड़ मजबू हो ले‍क‍िन बाला साहेब के जीतेजी वे ऐसा कतई नहीं कर सकते थे, उससे महाराष्‍ट्र में उनकी छवि धूमिल हो सकती थी।

 

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शिवसेना में बाल ठाकरे के बाद राज ही सर्वेसर्वा थे। लेकिन पुत्र मोह के चलते बाला साहेब और राज के बीच दूरिया बढ़ती चली गईं। फोटो – ट्व‍िटर

 

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जब राज ने कहा था पार्टी क्लर्क चल रहे है, मैं नहीं रह सकता

शिवसैनिकों और आम लोगों ने राज ठाकरे में बाल ठाकरे की छवि, उनकी भाषण शैली और रवैया देखा था और उन्हें बाल ठाकरे का स्वाभाविक दावेदार माना था, जबकि उद्धव ठाकरे राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते थे। अपने चाचा बाल ठाकरे की तरह राज ठाकरे भी अपनी बेबाक बयानबाजी के लिए हमेशा चर्चा में रहते हैं। स्वभाव से दबंग, फायर ब्रांड नेता राज ठाकरे की शिवसैनिकों के बीच लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी। बाल ठाकरे को बेटे और भतीजे में से किसी एक को चुनना था।

बाला साहेब ठाकरे के दबाव के कारण 2002 में बीएमसी चुनाव के जरिये उद्धव ठाकरे राजनीति में आये और इसमें बेहतरीन प्रदर्शन के बाद वह पार्टी में बाला साहेब ठाकरे के बाद सत्ता में दूसरे नंबर पर आ गये। पार्टी में कई वरिष्ठ नेताओं को नजरअंदाज करते हुए जब उद्धव ठाकरे को कमान सौंपने के संकेत मिले तो संजय निरुपम जैसे वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए। बालासाहेब ठाकरे के असली उत्तराधिकारी माने जाने वाले उनके भतीजे राज ठाकरे के बढ़ते कद के कारण भी उद्धव का संघर्ष काफी लोकप्रिय रहा। 2004 में यह टकराव चरम पर पहुंच गया जब उद्धव को शिवसेना की कमान सौंपी गई।

 

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शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के साथ उनके भतीजे राज ठाकरे एक आयोजन के दौरान। (पीटीआई फ़ाइल)

राज ठाकरे और उद्धव के बीच अंदरूनी मनमुटाव

साल 1995 में उद्धव ठाकरे ने शिवसेना के कामकाज में दखल देना शुरू कर दिया। बाल ठाकरे ने उनके पास कार्यकर्ता भेजना शुरू कर दिया। साल 1997 में बीएमसी चुनाव हुए थे। ज्यादातर टिकट उद्धव ठाकरे के कहने पर दिए गए थे। इसके बाद राज ठाकरे की नाराजगी भी सामने आ गई। लेकिन बीएमसी चुनाव में शिवसेना की जीत हुई और उद्धव ठाकरे के फैसलों पर मुहर लग गई। इसके बाद शिवसेना पर उद्धव ठाकरे की पकड़ मजबूत हो गई और राज ठाकरे किनारे हो गए। इसके बाद से ही राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बीच अंदरूनी मनमुटाव बढ़ने लगा. पार्टी में विभाजन शुरू हो गया।

 

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भतीजे राज और बेट उद्धव के साथ बीच मे बाला साहेब ठाकरे। फोटो ट्वीटर

उद्धव ठाकरे को मिली कमान

साल 2003 में महाबलेश्वर में उद्धव ठाकरे को पार्टी अध्‍यक्ष बनाने का प्रस्ताव पेश किया गया। जब राज ठाकरे ने खुद ये प्रस्ताव रखा तो हर कोई हैरान रह गया। इसके बाद इसे सर्वसम्मति से मंजूरी दे दी गई। उद्धव ठाकरे को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। शिवसेना ने आधिकारिक तौर पर उद्धव ठाकरे को कैप्टन मान लिया था। अब राज ठाकरे के लिए शिव सेना में कोई जगह नहीं बची थी। दोनों भाइयों के बीच दूरियां बढ़ती गईं और इसका अंत राज ठाकरे के शिवसेना छोड़ने के साथ हुआ।

 

राज की किस्मत का फैसला एक हत्या के केस से हुआ

साल 1996 में रमेश किनी की हत्या कर दी गई थी। जिसमें राज ठाकरे का नाम सामने आया था। बताया जाता है कि शिव सेना के लोग उनका फ्लैट चाहते थे। रमेश को धमकी दी गई। उनका शव सिनेमा हॉल में मिला था।

 

रमेश की पत्नी ने राज ठाकरे पर लगाया था हत्या का आरोप

रमेश की पत्‍नी ने राज ठाकरे पर हत्‍या का आरोप लगाया था। मामले की जांच सीबीआई ने की थी। हालांकि राज ठाकरे को बरी कर दिया गया। कहा जाता है कि इस हत्याकांड में राज का नाम आने के बाद शिवसेना में उनकी उल्टी गिनती शुरू हो गई थी। बताया जाता है कि इस हत्याकांड के बाद से ही उद्धव ठाकरे की शिवसेना में सक्रियता बढ़ गई थी।

राज ठाकरे ने बनाई अलग पार्टी

शिवसेना को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी पार्टी छोड़ दी और अपनी नई पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। राज ठाकरे उसी रास्ते पर चलना चाहते थे जिस रास्ते पर चलकर बाल ठाकरे ने अपनी जिंदगी गुजारी। अपनी अहमियत कम होता देख राज ठाकरे ने शिवसेना से नाता तोड़ लिया। साल 2006 में राज ठाकरे ने शिव सेना छोड़ दी और नई पार्टी बनाई।

27 नवंबर 2005 को राज ठाकरे ने अपने घर के बाहर अपने समर्थकों के सामने घोषणा की। मैं आज से शिवसेना के सभी पदों से इस्तीफा दे रहा हूं।’ पार्टी को क्लर्क चला रहे हैं, मैं नहीं रह सकता। हालांकि, राज ठाकरे के पार्टी छोड़ने का दुख हमेशा बाल ठाकरे को रहा। उस दौरान शिवसेना के कई दिग्गज नेता और बड़ी संख्या में कार्यकर्ता राज ठाकरे की नवगठित महाराष्ट्र नव निर्माण सेना में शामिल हुए थे।

2009 के विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने 13 सीटें जीतीं। हालाँकि, 2009 के आम चुनाव में मनसे को कोई सफलता नहीं मिली। इसके बाद से मनसे का प्रदर्शन लगातार गिरता गया। मनसे को 2014 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट पर जीत मिली थी।

 

सब्‍जी बेचते हुए छगन भुजबल बाल ठाकरे के प्रशंसक फ‍िर नफरत के बाद पार्टी में पहली बगावत करने वाले नेता

1960 के दशक में जब मुंबई के भायखला बाजार में सब्जी बेचने वाले छगन भुजबल ने बाल ठाकरे का भाषण सुना तो वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भी शिव सैनिक बनने का फैसला कर लिया। ये शिव सेना के शुरुआती दिन थे। भुजबल ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत शिवसेना के एक समर्पित कार्यकर्ता के रूप में की और कुछ ही वर्षों में पार्टी के एक शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे।

लेकिन साल 1985 में कुछ ऐसा हुआ, जिससे दोनों के बीच नफरत के बीज पनपने लगे। उस साल हुए विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनकर उभरी। जब विधानसभा में विपक्ष का नेता चुनने की बारी आई तो भुजबल को लगा कि जाहिर तौर पर बाल ठाकरे उन्हें यह जिम्मेदारी देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

भुजबल यह जानकर हैरान रह गए कि ठाकरे ने विपक्ष के नेता का पद मनोहर जोशी को दे दिया है। भुजबल के नेतृत्व में नौ शिवसेना विधायकों ने विधानसभा अध्यक्ष को एक पत्र सौंपा कि वे शिवसेना-बी नामक एक अलग गुट बना रहे हैं और खुद को मूल शिवसेना से अलग कर रहे हैं। भुजबल बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए। यह शिव सेना में पहली बड़ी बगावत थी।

 

जब नारायण राणे ने 10 विधायकों के साथ पार्टी छोड़ी थी

2003 में महाबलेश्वर में जब बाल ठाकरे ने उद्धव ठाकरे को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया तो नारायण राणे ने इसका विरोध किया था। यहीं से नारायण राणे और उद्धव ठाकरे के बीच राजनीतिक दुश्मनी शुरू हुई। फिर 2005 में बाल ठाकरे ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए नारायण राणे को शिवसेना से निष्कासित कर दिया।

कहा जाता है कि राणे के अंदर यह बात बैठ गई थी कि उन्हें बाहर करने के पीछे उद्धव का हाथ है। राणे अपने 10 समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए। राणे के जाने से कोंकण में शिवसेना को करारा झटका लगा।

मराठी और अंग्रेजी में प्रकाशित अपनी आत्मकथा झंझावत में राणे ने बताया कि 2005 में उद्धव ठाकरे की वजह से ही उन्हें शिवसेना छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था। बताया जाता है कि राणे का कद शिवसेना में नंबर दो का था।

एकनाथ शिंदे छीना उद्धव का अस्‍त‍ित्‍व

एकनाथ शिंदे और 40 विधायकों की बगावत के कारण इस समय उद्धव ठाकरे से कुर्सी और पार्टी दोनाेंं छीन उन्‍हें पंगु बना दिया।

80 वर्ष पार शरद पवार की पार्टी और अपने अस्‍तित्‍व को बचाने की कोशिश

बहरहाल 2 जुलाई को भतीजे अजित की बगावत के बाद 80 वर्ष पार शरद पवार पार्टी के अस्‍त‍ित्‍व को बचाने की कोश‍िश कर रहे हैं। गुरुवार को दिल्‍ली में NCP (NCP Crisis) कार्यकारिणी की बैठक के बाद शरद पवार ने कहा- मैं ही पार्टी का अध्यक्ष हूं। मुझे नहीं पता कि कौन क्या कह रहा है। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई और क्या कहता है। उनके दावों में कोई सच्चाई नहीं है। पार्टी के नाम और चुनाव चिह्न के मुद्दे पर एनसीपी चुनाव आयोग से संपर्क करेगी। आज की मुलाकात से हमारा हौसला बढ़ा है।

जब पवार से रिटायरमेंट को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि चाहे 82 साल हो या 92 साल, उम्र मायने नहीं रखती। मैं पार्टी का पुनर्निर्माण करूंगा। अगर कोई (अजित पवार) मुख्यमंत्री बनना चाहता है तो हमें कोई समस्या नहीं है। मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं।

 

 

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आज शरद पवार से उनके दिल्ली स्थित आवास पर मुलाकात की। एनसीपी (NCP Crisis) नेता सोनिया दुहन ने बताया कि राहुल गांधी ने शरद पवार से मुलाकात की और कांग्रेस के साथ का भरोसा दिलाया। पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी शरद पवार से फोन पर मौजूदा हालात पर चर्चा की।

 

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