1857 ki Kranti: वर्ष 1857 में (1857 revolt in India in hindi) वह ऐतिहासिक दिन 10 मई ही था, (1857 ki Kranti) जब देश की आजादी के लिए पहली चिंगारी मेरठ से भड़की थी। अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नींव साल 1857 में सबसे पहले मेरठ के सदर बाजार में भड़की, जो पूरे देश में फैल गई थी। यह मेरठ के साथ-साथ पूरे देश के लिए गौरव की बात है। मेरठ के क्रांति स्थल और अन्य धरोहर आज भी अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिधरा से शुरू हुई आजादी की क्रांति की याद ताजा करती हैं।
इससे पहले एक शतक पहले की स्थिति बताना भी यहां जरूरी है। क्योंकि उसी स्थिति ने 1857 की क्रांति को जन्म दिया। दरअसल अंग्रेजों ने 1757 से भारत की जो लूट प्रारम्भ की, उससे उनका पेट नहीं भरा।
किन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी अवश्य कंगाली के कगार पर पहुंच गई। उस कंगाली से कैसे मुक्त हुआ जाए, इस को दृष्टिगत रखकर तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने भारतीय राजाओं (हिन्दू-मुस्लिम दोनों) के गोद लेने के अधिकार को अमान्य करते हुए, उन राजे और रजवाड़ों को कम्पनी के आधिपत्य में लेना प्रारम्भ कर दिया जोकि निःसंतान थे।
कम्पनी के इस हड़पकारी सिद्धांत से भारतीय राजे-महाराजों में न केवल हड़कम्प मच गया बल्कि उन्होंने कम्पनी के इस कृत्य को उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के रूप में लिया। 1853 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत को लंबे समय तक कम्पनी के आधिपत्य में रखने के लिए एक कमीशन बनाया जोकि ब्रिटिश पार्लियामेंट्री कमीशन के नाम से जाना जाता है। इसकी अनुशंसाओं में भी भारत के दैनंदिन जीवन में हस्तक्षेप की बातें थीं।
इन दोनों विषयों को ध्यान में रखकर राजे रजवाड़ों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में अंग्रेजों के विरुद्ध सम्मेलनों के आयोजन किए। वहीं दूसरी ओर समाज को अंग्रेजों के कुत्सित कृत्यों से बचाने के लिए सन्यासियों ने भी कमर कस ली। 18 वीं सदी के अंतिम वर्षों में भी बंगाल में सन्यासियों ने वारेन हेस्टिंग्स और अंग्रेज़ी सेना को नाकों चने चबवा दिए थे।
इस बार भी सन्यासियों ने 1855-56 से अनेक स्थानों पर यथा ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर तथा मथुरा-वृंदावन को अपनी कार्यस्थली बनाया। ये चारों स्थान ही हिंदुओं के लिए पौराणिक महत्व के रहे हैं।
इसलिए यहां पर हजारों की संख्या में तीर्थयात्रियों ने इन सम्मेलनों में सहभागिता की और यहां से क्रांति की चिंगारी लेकर वे सर्वत्र गए जोकि बाद में ज्वालामुखी के रूप में अंग्रेजी सत्ता के सम्मुख प्रकट हुई।
तय तारीख से पहले अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा
फिर शहर में 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की (1857 ki Kranti) चिंगारी उस वक्त फूटी थी, जब देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ जनता में गुस्सा भरा हुआ था। अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए रणनीति तय की गई थी। एक साथ पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजाना था,
लेकिन मेरठ में तय तारीख से पहले अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। इतिहासकारों की माने और राजकीय स्वतंत्रता संग्रहालय में प्रथम स्वतंत्रता संग्राण से संबंधित रिकार्ड को देखे तो, दस मई 1857 में शाम पांच बजे जब गिरिजाघर का घंटा बजा, तब लोग घरों से निकलकर सड़कों पर एकत्रित होने लगे थे।
सदर बाजार क्षेत्र से अंग्रेज फौज पर लोगों की भीड़ ने हमला बोल दिया। नौ मई को कोर्ट मार्शल में चर्बीयुक्त कारतूसों को प्रयोग करने से इंकार करने वाले 85 सैनिकों का कोर्ट मार्शल किया गया था। उन्हें विक्टोरिया पार्क स्थित नई जेल में बेड़ियों और जंजीरों से जकड़कर बंद कर दिया था।
10 मई की शाम को ही इस जेल को तोड़कर 85 सैनिकों को आजाद करा दिया था। कुछ सैनिक तो रात में ही दिल्ली पहुंच गए थे और कुछ सैनिक ग्यारह मई की सुबह यहां से भारतीय सैनिक दिल्ली के लिए रवाना हुए और दिल्ली पर कब्जा कर लिया था।
इस तरह तय समय से पहले बज गया विद्रोह का बिगुल
नाना साहब पेशवा भी अजीमुल्ला खान के साथ कानपुर से सहारनपुर होते हुए ऋषिकेश के सन्यासियों के सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे और उन्हीं की प्रेरणा से गुजरात तक की यात्रा की थी। यह क्रांति वस्तुतः राष्ट्रव्यापी थी। 31 मई, 1857 इसका (1857 ki Kranti) प्रारम्भ होने का दिन था उसी अनुरूप समाज और सेना में कमल और रोटी का वितरण करके तैयारियों को पूर्ण किया गया था।
यह संचार की एक अदभुत तकनीक थी जिसमें एक व्यक्ति को कमल का फूल और रोटी दी जाती थी औऱ क्रांति का संकल्प लिया जाता था तथा उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अन्य पांच व्यक्तियों को ऐसा ही संकल्प दिलवाए।
सब कुछ ठीक चल रहा था किंतु अचानक अब्दुल नाम के एक व्यक्ति, जोकि पूर्व में ईसाई था ने 10 मई से पहले ही कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी की बात को हवा दे दी जिसकी प्रतिक्रिया में 10 मई को क्रांति ने आकार ले लिया।
मेरठ से क्रांति की ज्वाला पूरे देश में फैल गई थी
यह क्रांति समय पूर्व हुई थी, किन्तु फिर भी इसने मेरठ और उसके आस पास के क्षेत्र को इतना सक्रिय कर दिया था कि हजारों-हजार की संख्या में जनता अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई थी।
मेरठ और आस-पास की सभी सेना दिल्ली पहुंचकर बहादुर शाह जफर को देश का बादशाह घोषित कर चुकी थी और उनके बेटे के सम्मुख सेना ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई तो वह संख्या 90 हजार के लगभग थी। सेना और समाज की सक्रियता से यह पूरा क्षेत्र कई दिनों तक अंग्रेजी सत्ता से मुक्त रहा था।
मेरठ से जो क्रांति की चिंगारी समय पूर्व फूटी थी उसने सम्पूर्ण भारत में ज्वाला का रूप ले लिया था। बम्बई और मद्रास की सैनिक बटालियनों ने भी अग्रेज़ों के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया था। यद्यपि अंग्रेजों ने अनेक स्थानों पर देशी सेना से हथियार वापिस लेने की शुरुआत कर दी थी।
किन्तु कई स्थानों पर अंग्रेजों को सेना के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। पेशावर से केरल तक और गुजरात से कामरूप तक सम्पूर्ण समाज अंग्रेजों के विरुद्ध कमर कस कर खड़ा हो गया था।
कार्ल मार्क्स ने भी 1857 के आंदोलन को आजादी की पहली क्रांति माना (1857 ki Kranti )
कार्ल मार्क्स सदृश अनेक पश्चिमी विद्वानों और लेखकों ने भी इसे राष्ट्रीय क्रांति ही माना है किन्तु कुछ उपनिवेशी मानसिकता से पोषित इतिहासकार इसे हिंदी भाषी क्षेत्र में हुआ सैनिक विद्रोह ही मानते हैं जोकि उनकी कुत्सित मनोवृति का ही परिचायक है और उनका यह कृत्य जिसमें इतिहास को विकृत करके प्रस्तुत किया गया है,
वह भारत के युवाओं के प्रति जघन्य अपराध तथा इस क्रांति में जिन हजारों युवाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया के प्रति भी कृतघ्नता है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में युवाओं को भारत के सही इतिहास से परिचय कराना ही शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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