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फोटो: बाएं डॉ. हिरोयुकी मुराकामी, क्रेडिट मारिया सेत्ज़र; दाएं एनओएए |
लगभग 2.5 अरब साल पहले, पृथ्वी पर जीवन समाप्त होना शुरू हुआ। प्रकाश संश्लेषक जीव सूर्य के प्रकाश से फलने-फूलने लगे। इस वैश्विक प्रलय के पीछे का कारण एक ऐसी चीज थी जिसके बिना आज जीवन की कल्पना करना असंभव है और वह थी ऑक्सीजन।
ऐसे जीव जो इसका उपयोग करने में सक्षम थे, वे ही पृथ्वी पर बचे थे और यह पहले से फैले हुए बाकी जीवों के लिए जहर में बदलने लगे।
अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मेन के प्रोफेसर टिमथी वाॅरिंग का मानना है कि पृथ्वी एक बार फिर उसी तबाही के रास्ते पर है और इस बार प्रकाश संश्लेषक जीवों की जगह इंसान हैं।
लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था तो थमी लेकिन हवा कुछ हद तक शुद्ध हुई
कोरोना वायरस महामारी फैलने के साथ ही दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के कदम थम गए। इसके साथ ही जिस हवा में हम सांस लेते है उस हवा ने भी राहत की सांस ली।
अर्थ सिस्टम साइंस डेटा जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, उत्सर्जन की निगरानी करने वाले वैज्ञानिकों के एक ग्रुप ने पाया कि वर्ष 2020 में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 34 बिलियन मीट्रिक टन रहा था,
जो 2019 में 36.4 बिलियन मीट्रिक टन था। ये गिरावट इसलिए देखी गई, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान लोग अपने घरों में बंद रहे इससे व्हीकल और हवाई जहाज से यात्राएं न के बराबर हुई।
सबसे बड़ी समस्या Social Dilemma की
दूसरी ओर, महामारी को रोकने के लिए अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने का भारी विरोध हुआ। जाहिर है, क्लायमेट चेंज से निपटने के लिए वैसे भी इस तरीके का इस्तेमाल नहीं किया जाता सकता है।
लेकिन इसके लिए लंबे समय से जिस चीज पर फोकस किया जा रहा है वह है निरंतर विकास यानि सस्टेनेबल डवलपमेंट। प्रोफेसर वारिंग के पास इसके लिए एक आदर्श सिद्धांत है,
जो ह्यूमन सोसायटी के कल्चर के डवलपमेंट को सस्टेनेबल डवलपमेंट से जोड़ता है। सतत विकास की राह में सबसे बड़ी समस्या Social Dilemma यानि सामाजिक दुविधा की स्थिति है।
सस्टेनेबल डवलपमेंट को पूरी तरह से हासिल करना इतना कठिन क्यों है? वारिंग का सिद्धांत इस बात के इर्द-गिर्द घूमता है कि कब और कैसे लोगों और संस्थानों का नजरिया सस्टेनेबल होता है।
“वर्तमान शोध इस बात की पहचान करता है कि सस्टेनेबिलिटी हासिल करने के लिए किस प्रकार के व्यवहार और संस्थान आवश्यक हैं,” और यहीं से उनका सिद्धांत काम आता है।
क्या 2050 तक डूब जाएगी मुंबई? क्योंकि अरब सागर में खतरा दिखा जा रहा है
दुनिया भर में 3 अरब से अधिक लोग अपनी रोजी रोटी के लिए महासागरों पर डिपेंड हैं। इसके बावजूद सीमित आबादी की दृष्टि से इन पर पड़ने वाले प्रभाव को गंभीर माना जा रहा है।
जो लोग समुद्र से काफी दूर रहते हैं उन्हें लगता है कि वे सुरक्षित हैं, जबकि ऐसा नहीं है।
अमेरिका के नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन की जियोफिजिकल फ्लूड डायनेमिक्स लेबोरेटरी (जीएफडीएल) में प्रोजेक्ट साइंटिस्ट डॉ. हिरोयुकी मुराकामी ने के अनुसार नए अध्ययनों में ट्रॉपिकल साइक्लोन लंबे समय तक जमीन पर रह सकते हैं।
वहीं गर्म टेम्प्रेंचर में, वे जमीन पर और आगे तक जा सकते हैं।
इससे साबित हुआ है कि भूमि पर रहने वाले लोगों को तूफान से संबंधित क्षति का अधिक खतरा हो सकता है। जैसे-जैसे महासागर गर्म होते हैं, मूसलाधार बारिश भी अधिक बार हो सकती है।
इसलिए समुद्र से दूर रहने वालों के लिए खुद को सुरक्षित समझना सही नहीं है।
व्यक्ति विशेष के फायदे से समाज को नुकसान हो रहा
Social Dilemma कहलाने वाली यह दुविधा क्यों पैदा होती है? वारिंग कहते हैं, “ज्यादात एन्वायर्नमेंट प्रॉब्लम्स ग्रुप से जुड़ी होती हैं।
जैसे किसी एक समूह के इस्तेमाल में आने वाला प्रॉसेस हो सकता है कि वो दूसरे समूह के लिए नुकसानदायी हो। यही Social Dilemma है।
जिसमें एक व्यक्ति या तबके को फायदा तो दूसरे के लिए यह फायदा नुकसान से भरा हो सकता है। वहीं लंबे समय तक ये प्रक्रिया हानिकारक हो सकती है।
आसान भाषा में समझें तो किसी फेक्ट्री में कोई उत्पाद बनते हैं जिससे उत्पाद बनाने वाले मालिक और उसके कर्मचारियों को फायदा होता है,
लेकिन दूसरी ओर इस फैक्ट्री से होने वाला पॉल्यूशन अन्य बड़े तबके के लोगों की परेशानी का सबब बन सकता है।
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सैटलाइट डेटा और क्लाइमेट मॉडल्स के आधार पर रिसर्चर्स ने बताया है कि स्ट्रेटोस्फीयर (stratosphere) के नीचे की परत ट्रोपोस्फीयर (troposphere) जलवायु परिवर्तन की वजह से गर्म हो रही है। |
तो क्या किया जाना चाहिए?
समूहों के व्यवहार पर ध्यान देंने की जरूरत है। नीतियों में बदलाव जैसे बड़े परिवर्तन के लिए संस्थाओं को नियम बनाने चाहिए।
संसाधनों का अत्यधिक उपयोग बंद होना चाहिए, हरित जीवन शैली को अपनाना आसान होना चाहिए, इसे सस्ता किया जाना चाहिए।
अच्छे काम को बढ़ावा देना चाहिए, इनाम देना चाहिए लेकिन नुकसान करने पर टैक्स लगना चाहिए। ये सब चीजें सामाजिक स्तर पर करना बेहद जरूरी है।
दिख नहीं रहा, लेकिन जलवायु परिवर्तन हो रहा है ये सच्चाई है
सतत विकास की राह में सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक समस्या की भूमिका और प्रभाव का असमान वितरण है। अमेरिका में पर्यावरण पर हर इंसान का औसत प्रभाव भारत की तुलना में 20-25 गुना अधिक है।
वहीं, बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन जैसी कोई चीज नहीं है। वह सोचते हैं कि केवल मौसम बदल गया है और वह ठीक हो जाएगा।
जैसे-जैसे मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है, वैसे-वैसे पर्यावरणीय संसाधनों का दोहन भी होता है। कई बार इससे होने वाला बदलाव इतना धीमा होता है कि लोगों की जिंदगी चलती रहती है, असर नजर नहीं आता।
इसलिए नीतियों में बदलाव की जरूरत है ताकि समूहों की सोच को बदला जा सके।
कैसे छोटे से राज्य ने फॉसिल्स फ्यूल पर निवेश को समाप्त कर नजीर पेश की
प्रोफेसर वॉरिंग अमेरिका में एक छोटे से स्टेट मेन का उदाहरण देते हैं कि कैसे फॉसिल्स फ्यूल पर निवेश को समाप्त कर दिया गया था और यह एक छोटा कदम हो सकता है
लेकिन एक पूरे समूह के लिए लिया गया यह निर्णय सही हो सकता है। अगर कैलिफोर्निया जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इसे अपनाती हैं तो एक बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा।
यह ऐसा कदम उठाने के लिए समाज और अर्थव्यवस्था के लिए उपलब्ध विकल्पों को भी ध्यान में रखता है।
लोगों को अपने स्तर पर ऐसे नेताओं को चुनने का प्रयास करना चाहिए जो इस दिशा में बड़े संरचनात्मक परिवर्तन ला सकें।
कार्बन लागत के आधार पर कर की तरह, सामाजिक और राजनीतिक गति पैदा करें, उन जगहों और लोगों से सीखें जो बेहतर कर रहे हैं।
जिम्मेदारी को समझने की जरूरत
उदाहरण के लिए, मछलियों का अति-शिकार महासागरों और महासागरों के पारिस्थितिक तंत्र को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाता है। एक्वाकल्चर या मत्स्य पालन इस समस्या को जड़ से खत्म नहीं करता है,
बल्कि यह एक समूह को दिए गए संसाधन की देखभाल करने की जिम्मेदारी देता है। इसकी सफलता या असफलता की जिम्मेदारी भी एक समूह की होती है।
इससे हमें अपनी कार्रवाई और उसके प्रभाव को करीब से देखने का मौका मिलता है, जिससे पता चलता है कि हम सतत विकास में कहां पिछड़ गए हैं।
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NASA के गॉडार्ड इंस्टिट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज के डायरेक्टर गैविन श्मिट ने कनाडा के नैशनल ऑब्जर्व को 2016 में बताया था कि कार्बनडायऑक्साइड स्ट्रेटोस्फीयर में ठंडी हो जाती है जिससे ये सिकुड़ने लगती है। |
कहीं बहुत देर न हो जाए, क्योंकि जलवायु परिवर्तन का संकट बद से बद्तर हो रहा है
संस्थानों के बीच, राज्यों के बीच, कंपनियों के बीच दबाव होना चाहिए, जिसे सरकारों के स्तर तक ले जाया जा सकता है।
प्रोफेसर वारिंग के अनुसार, ‘हमें उन कंपनियों और देशों पर सख्त अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंधों लगाने की जरूरत है जो जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद करने के लिए कदम नहीं उठा रहे हैं।’
वॉरिंग कहते हैं, ‘जलवायु परिवर्तन का संकट बहुत बड़ा है और यह बद से बदतर होता जा रहा है, वह भी उस गति से जो हमने नहीं सोचा था कि संभव है और इसका प्रभाव हर जगह जलवायु पर पड़ रहा है।
इसलिए अगर लोग इसे अभी गंभीरता से नहीं लेते हैं, तो इसे बाद में लेना होगा, लेकिन हम देर नहीं कर सकते।
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